Wednesday, December 3, 2008

Cruel face of terror



आतंक के साए में -- मैं यतीम ...........




कल तक चेहेकता था


घर मेरा


पिता की अंगुली पकड़े


नापता था


शहर की कच्ची नंगी सड़के


माँ की गोद में रोता , हँसता


और न जाने कब सो जाता


उसी के पहलु में


दिन दिन भर गूंजती थी


मेरी किलकारियां


इन बंद रोशनदानो के बीच


अचानक कहाँ से जानी पहचानी आवाजों के बीच


धमाके गूंज उठे


चारो ओर धुआं ही धुआं छा गया बादल बन


मैं रोया बिलखा


नही हुआ असर किसी पर


और अचानक उन चंद चेहेरों की दुनिया से


धकेल दिया किसी ने मुझे


जहाँ अनेक चेहरे हैं


पर अपना नहीं कोई


जहाँ नहीं जानता मैं


किसी को


अब चारों तरफ़


खामोशी रोशन है


सन्नाटा बिखरा पड़ा है


गूंजता है तो सिर्फ़ एक सवाल


जो गूंजेगा अब ताउम्र मेरे ज़हन में की


आख़िर क्या माँगा था मैंने ?


माँ के पहलु में एक छोटी सी जगह


जहाँ थक कर मैं सो जाऊँ

उठू तो देखू एक उम्मीद भरी तस्वीर


मेरे भविष्य की


उसकी नम आंखों में


उम्मीद थी


ज़ख्मी घुटनों से भी खड़ा कर


रास्ता दिखायेंगे पापा


सिखायेंगे कैसे करते स्वप्न को बड़ा


पाल पोस कर


मानो कह रहे हो


निडर हो सामना करना हर चुनौती का


और अब


कुछ मौजूद है

तो वो है एक डर


की जब तक कुछ समझ पाउँगा


होश संभाल पाउँगा
कौन रखेगा ख्याल


मुझ यतीम का


?




-अभिनव जोशी


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